8. कहाँ है बचपन...??

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धुँआ ही धुँआ है जहाँ देखती हूँ
पता ही नही मैं कहाँ देखती हूँ!!
वो गुड़ियों का घर राजा-रानी की शादी
एक गुज़रा हुआ कारवाँ देखती हूँ।।

 
डूब गई कश्तियाँ कागज़ की,
वो खेल खिलौने टूट गए..l
जहां एक प्यारा सा पेड़ था नीम का,
वहाँ कारखानों का धुआँ देखती हूँ।।


बिछड़ गया वो लड़ना झगड़ना,
मज़े लेना शिक़ायत करना

 ज़ुबाँ पे मीठास दिल मे नफ़रत लिए,
भीड़ में हर इंसां देखती हूँ।।


फूल कली मिट्टी और ख़ुशबू,
बाहें फैलाये कर रहे गुहार
नन्ही-नन्ही मासूमियत को,
देते हुए इन्तहां देखती हूँ।।


नानी की कहानियाँ अब नही रही,
न खेत, खलिहान, मैदान रहे 

छीन लिया बचपन चुपके से जिसने
हर जगह मशीनी ज़ुबाँ देखती हूँ।।


वो तुतलाती ज़ुबाँ से कहानी सुनाना,
वो पतंग के पीछे दौड़ के जाना

कुछ न बचा है पहले के जैसा ,
बस क़दमों के निशाँ देखती हूँ।।।




बच्चे बचपन को तरस रहे ,
खो रही उनकी मासूमियत

बारिश की बूंदें रो रही ,
मैं उनका अश्क़-ए-बयाँ देखती हूँ।


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