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मैं नन्ही सी किलकारी,
दुनियां में आने राज़ी थी।
नींद भी ठीक से खुली नही,
अभी-अभी तो जागी थी।।
माँ के अंदर पनप रही,
सोचा था गोद में खेलूंगी।
तुमने मुझसे गोद छीन ली,
जैसे माँ भी राज़ी थी????
मेरी नन्ही उंगली पकड़ के,
चलना तो सिखला न सके।
फेंक दिया बेजान समझ के,
सांस तो लेकिन बाक़ी थी।।
मै ने सोचा परी हूँ मैं,
तुमने इंसान भी न समझ।
कैसे कुचल कर चले गए,
ये कैसी नाराज़गी थी!!?
इतने पत्थर दिल कैसे हो?
ओ समाज़ के ज़िम्मेदारों??
रूह नहीं कॉपी तुम्हारी???
या इंसानियत ना बाक़ी थी?
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मानवीय संवेदनाओं को झकझोरने का एक अच्छा प्रयास आपने इस कविता के जरिये किया है. देश की आजादी के 72 साल बाद भी बेटी बचाओ जैसे नारे लगाना 21 वीं सदी के भारत का दुुर्भाग्य ही कहा जायेगा.उस भारत में जहां प्राचीनकाल में नारियों की पूजा होती थी.भारतीय नारी की गौरवगाथा के बारे में हडप्पाकालीन संस्कृति और वैदिक संस्कृति में ढेरों उदाहरण मौजूद है.बहरहाल एक रचनाकार के रुप में आपने इस बेहद संवेदनशील मुद्दे को उठाया है, जो स्वागत योग्य है..
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद!!
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